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Tuesday, December 6, 2016

#नोटबन्दी ॥एक अधुरा फैसला

बड़े नोटों का चलन बंद करने के साथ सरकार ने क्या इतना बड़ा निवाला काट लिया है कि अब चबाना मुश्किल पड़ रहा है? क्या प्रधानमंत्री मोदी ने खासे लंबे वक्त में मिलने वाले बहुत थोड़े और अनजाने फायदों के बदले मंदी और आम लोगों के लिए मुसीबतें न्योत ली हैं?
नोट बंद होने से भारी अफरा-तफरी के बाद सरकार भावनात्मक और रक्षात्मक है. संसद की बहसें हमेशा की तरह तथ्यहीन हैं. जबकि यह एक आर्थिक फैसला है इसलिए तथ्यों में नापना जरूरी है. बयानबाजियों से अलग, अपना ही पैसा निकालने के लिए लाइन में लगकर मौत को गले लगाते बदहवास लोगों को यह समझ में आना चाहिए कि विशाल मौद्रिक बदलाव के फायदे और नुकसान क्या हो सकते हैं.
पहले, तथ्यों पर एक नजर डालते हैं:
1. तमाम स्वतंत्र एजेंसियों के अनुसार तकरीबन 20 फीसदी
काला धन नकदी में है, जबकि बाकी जमीन-जायदाद और जेवर-गहनों की शक्ल में रखा गया है. हालांकि काली नकदी और कम भी हो सकती है.
2. बड़े नोटों का बंद होना केवल उन लोगों को नुकसान पहुंचाता है, जिन्होंने इस फैसले के वक्त अपनी काली कमाई नकदी की शक्ल में जमा कर रखी थी.
3. देश में जितनी मुद्रा चलन में थी, उसका 80 फीसदी हिस्सा अब बेकार हो चुका है. भारत का ज्यादातर व्यापार और खर्च बड़े नोटों में ही होता है. इस लिए नोटों को बदलने के लिए बैंकों या दूसरे विनिमय केंद्रों पर आना होगा.
4. भारत की 11.8 फीसदी अर्थव्यवस्था नकदी के सहारे चलती है. भारत के जीडीपी में नकदी का अनुपात कमोबेश कई बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बराबर है. जर्मनी के जीडीपी में नकदी का अनुपात 8.7 फीसदी है, जबकि फ्रांस में यह 9.4 फीसदी है. जापान में 20.7 फीसदी अर्थव्यवस्था नकदी है.
5. नकद अर्थव्यवस्था में काले और सफेद लेनदेन का जटिल घालमेल है. गैरकानूनी तरीकों से कमाई गई नकदी का इस्तेमाल भी उत्पादक संपत्तियां और मांग पैदा करने के लिए भी किया जाता है. इसलिए नकद अर्थव्यवस्था दूसरे तरह से समझते हैं. नकद अर्थव्यवस्था में दो किस्म की नकदी होती है. एक एकाउंटेड या घोषित और दूसरी अनअकाउंटेड. नियमों के तहत दो ही खाते अधिकृत है. नकदी केवल तभी कानूनी बन सकती है जब या तो टैक्स खाते में उसका लेखा-जोखा हो या बैंक खाते में. जो भी नकदी इन दोनों खातों से बाहर है उसे अनअकाउंटेडड कहेंगे.
6. काले धन की अर्थव्यवस्था के आकार के बारे में चाहे जो अनुमान हों, लेकिन जहां तक नकद अर्थव्यवस्था की बात है, इसे भारतीय रिजर्व बैंक हरेक तिमाही में अच्छी तरह से मापता और दर्ज करता है. चूंकि आरबीआई छापे गए हरेक करेंसी नोट का रिकॉर्ड रखता है, इसलिए मनी इन सर्कुलेशन का आंकड़ा, नकद अर्थव्यवस्था की गणना है.
फायदों का हिसाब
लगभग दस-ग्यारह दिन के दर्द के बाद देश यह जानने को बेचैन है कि इस कुर्बानी के फायदे आखिर क्या होने वाले हैं. नकद अर्थव्यवस्था के कुछ आंकड़ों से फेंट कर संभावित फायदों का अंदाज लगाया जा सकता है.
रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक मार्च 2016 तक भारत में 500 और 1000 के नोटों में करीब 14,180 अरब रुपये की नकदी प्रचलन में थी. इसमें से 30 फीसदी यानी 4,254 अरब रुपये की नकदी ाबैंकों और दूसरी सरकारी एजेंसियों के पास थी, जबकि 70 फीसदी यानी 9,926 अरब रुपये आम जनता (मनी विद पब्लिक) के पास थे.
यह लेख लिखे जाने तक करीब 11.50लाख करोड़ रुपये बैंकों के पास जमा हो चुके थे. पूरे अभियान की सफलता इस बाद पर निर्भर है कि बड़े नोट बंद होने के बाद कितनी नकदी अदला-बदली के लिए वापस आएगी और कितनी नकदी व्यवस्था से गायब हो सकती है?
1978 में इसी तरह के फैसले के बाद 75 फीसदी रकम व्यवस्था में वापस आ गई थी, जबकि बाकी 25 फीसदी नकदी सिस्टम से बाहर हो गई थी. हमारे पास नकदी में काले और सफेद का कोई ठोस आंकड़ा नहीं है, फिर भी तमाम आकलनों के मुताबिक 2,500 अरब से 3000 अरब रुपये की रकम शायद नोट बदली के लिए बैंकों तक नहीं आएगी अर्थात् यह धन बैंकिंग सिस्टम से बाहर हो जाएगा. यह रकम जीडीपी के 2.4 से 3 फीसदी के बीच कहीं हो सकती है.
इधर जब हम इन आंकड़ों पर सिर खपा रहे थे, तभी रिजर्व बैंक ने सरकार को बताया है कि अगर सरकारी छापेखाने तय वक्त से ज्यादा काम करेंगे, तब भी गैरकानूनी करार दिये गये 22 अरब नोटों को एक साल का वक्त लगेगा. ऐसे में सरकार को मजबूर होकर करेंसी नोटों के आयात का रास्ता अपनाना पड़ सकता है और पुराने नोटों को बदलने की मियाद को 50 दिनों से आगे बढ़ाना पड़ सकता है. इसलिए तीन-चार माह बाद ही हमें यह पता चलेगा कि आखिर मनी इन सर्कुलेशन का कितना हिस्सा बैंकों के पास आया और कितना खत्म हो गया है.
तो भी हम मानकर चल सकते हैं कि:
1. लोगों के पास जो कुल 9.9 लाख करोड़ रुपये की रकम है, उसमें 7 से 8 लाख करोड़ बैंकों के पास नकदी बदलने के लिए वापस आएंगे.
2. चूंकि करेंसी इन सर्कुलेशन आरबीआई की देनदारी है, इसलिए जितना धन वापस नहीं लौटेगा, वह रिजर्व बैंक की आय होगी.
3. आरबीआई यह रकम सरकार को निवेश के लिए या लाभांश के तौर पर बांट सकता है या फिर स्वाहा हो चुकी रकम को बेकार मानकर नोटों की आपूर्ति में कमी कर सकता है, जैसा कि 1978 में किया गया था.
आइए अब नुकसानों की गिनती करें
नोट बंद होने से बाजार में मांग और खपत पूरी तरह खत्म हो चुकी है. व्यापार सुन्न पड़ा है और तरलता संकट की वजह से वित्तीय बाजार गिरे हैं और रुपया टूट गया है. बैंकों के सामने रकम के लिए ज्यादा लंबी कतारों ने सरकार को धन निकालने और अदला-बदली के नियमों में ढील देने के लिए मजबूर किया है.
खपत/मांग
1. सरकार के आंकड़ों के मुताबिक भारत में उपभोग खर्च प्रति माह 2,97,455 रुपए है. इस खर्च में खाना, किराना, ईंधन, बुनियादी सेवाएं, उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स के सामान वगैरह सभी कुछ शामिल हैं. नोट बंद होने के बाद पूरी खरीदारी जरूरी चीजों तक सीमित है.
2. ध्यान रखें कि भारत में उपभोग खर्च जीडीपी का औसतन 60 फीसदी और है. चूंकि हिंदुस्तान की 11.8 फीसदी अर्थव्यवस्था नकदी के भरोसे चलती है, इसलिए नकदी पर आधारित खपत खत्म हो चुकी है. बाजार छह महीने लंबी मंदी और जीडीपी में 0.5 फीसदी तक गिरावट का अंदाज लगा रहे हैं.
कॉरपोरेट
1. उपभोक्ता उत्पादों की कंपनियां अगले तीन से छह महीनों के दौरान बिक्री में जबरदस्त गिरावट से कांप रही हैं. उपभोक्ता खपत के सामान बनाने वाली 10 शीर्ष कंपनियां नोटबंदी के बाद से शेयर बाजार में 1.5 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का बाजार मूल्य गंवा चुकी हैं.
2. मांग लौटने तक नए निवेशों और मार्केटिंग के खर्चों की उम्मीद बेमानी है.
बैंकिंग व्यवस्था
1. नया जमा बैंकों के लिए हरगिज खुशखबरी नहीं है. आखिरी गिनती तक बैंकों ने रिवर्स रेपो विंडो के जरिए आरबीआई में 6 लाख करोड़ रुपये जमा कराये हैं. जिस पर आरबीआइ को उन पर भारी ब्याज चुकाना पड़ेगा: तकरीबन 6.2 फीसदी सालाना की दर से.
2. बैंकों ने जमा पर ब्याज दरों में कटौती करना पहले ही शुरू कर दिया है और वे चाहेंगे इस जमा रकमों को जल्दी ही निकाल लिया जाए, क्योंकि कर्ज बांटने का धंधा मंद चल रहा है.
3. बैंकों के कर्ज रिकवरी में सुस्ती आने की संभावना है. ग्रामीण और खुदरा कारोबार में गिरावट के कारण कुछ समय के लिए बैंकों के एनपीए बढ़ सकते हैं. बैंकों को अगले कुछ महीनों के लिए खुदरा/ग्रामीण कर्जों की अपनी अंडरराइटिंग प्रक्रियाओं पर नए सिरे से नजर डालनी होगी और नए कर्ज रोकने होंगे.
4. जब तक यह नकदी संकट खत्म नहीं होता, बैंकों को कर्ज बांटने, वसूली और अन्य कामकाज स्थगित रखने पड़ेंगे.
सरकार को भी होगा नुकसान
1. स्वाहा हो चुके काले धन की शक्ल में कितना धन सरकार को मिलेगा यह अभी पता नहीं, लेकिन सरकार को नई मुद्रा की छपाई की लागत के लिए 11,000 करोड़ रुपये की चपत सहनी होगी.
2. राज्य सरकारें जमीन की रजिस्ट्रियों और वैट के संग्रह में कमी आने की वजह से कर संग्रह में गिरावट के लिए कमर कस रही हैं. उत्पादन और बिक्री में ठहराव की वजह से केंद्र को सेवा कर और उत्पाद शुल्क से हाथ धोना पड़ सकता है.
राजनेता हमेशा चौंकाना चाहते हैं लेकिन अर्थव्यवस्था का तकाजा है स्थिरता, ताकि लंबे समय के लिए निवेश किया जा सके. सरकार के फैसलों का सियासी फायदा-नुकसान तो चुनावी आंकड़ों से ही पता चलता है. अलबत्ता आर्थिक आंकड़े रोज आते हैं और फैसलों पर फैसला सुनाते हैं. फिलहाल तो नकदी की कमी ने भारत को दुनिया की सबसे तेजी से सुस्त पड़ती अर्थव्यवस्था में बदल दिया है, हालांकि आखिरी फैसला अभी आना बाकी है

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