THIS BLOG IS CREATED BY MOHD ASLAM ANSARY NAI BASTI NOWGAWAN SADAT

Saturday, December 17, 2016

Alappa as a urn of qiamat


Tuesday, December 6, 2016

#नोटबन्दी ॥एक अधुरा फैसला

बड़े नोटों का चलन बंद करने के साथ सरकार ने क्या इतना बड़ा निवाला काट लिया है कि अब चबाना मुश्किल पड़ रहा है? क्या प्रधानमंत्री मोदी ने खासे लंबे वक्त में मिलने वाले बहुत थोड़े और अनजाने फायदों के बदले मंदी और आम लोगों के लिए मुसीबतें न्योत ली हैं?
नोट बंद होने से भारी अफरा-तफरी के बाद सरकार भावनात्मक और रक्षात्मक है. संसद की बहसें हमेशा की तरह तथ्यहीन हैं. जबकि यह एक आर्थिक फैसला है इसलिए तथ्यों में नापना जरूरी है. बयानबाजियों से अलग, अपना ही पैसा निकालने के लिए लाइन में लगकर मौत को गले लगाते बदहवास लोगों को यह समझ में आना चाहिए कि विशाल मौद्रिक बदलाव के फायदे और नुकसान क्या हो सकते हैं.
पहले, तथ्यों पर एक नजर डालते हैं:
1. तमाम स्वतंत्र एजेंसियों के अनुसार तकरीबन 20 फीसदी
काला धन नकदी में है, जबकि बाकी जमीन-जायदाद और जेवर-गहनों की शक्ल में रखा गया है. हालांकि काली नकदी और कम भी हो सकती है.
2. बड़े नोटों का बंद होना केवल उन लोगों को नुकसान पहुंचाता है, जिन्होंने इस फैसले के वक्त अपनी काली कमाई नकदी की शक्ल में जमा कर रखी थी.
3. देश में जितनी मुद्रा चलन में थी, उसका 80 फीसदी हिस्सा अब बेकार हो चुका है. भारत का ज्यादातर व्यापार और खर्च बड़े नोटों में ही होता है. इस लिए नोटों को बदलने के लिए बैंकों या दूसरे विनिमय केंद्रों पर आना होगा.
4. भारत की 11.8 फीसदी अर्थव्यवस्था नकदी के सहारे चलती है. भारत के जीडीपी में नकदी का अनुपात कमोबेश कई बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बराबर है. जर्मनी के जीडीपी में नकदी का अनुपात 8.7 फीसदी है, जबकि फ्रांस में यह 9.4 फीसदी है. जापान में 20.7 फीसदी अर्थव्यवस्था नकदी है.
5. नकद अर्थव्यवस्था में काले और सफेद लेनदेन का जटिल घालमेल है. गैरकानूनी तरीकों से कमाई गई नकदी का इस्तेमाल भी उत्पादक संपत्तियां और मांग पैदा करने के लिए भी किया जाता है. इसलिए नकद अर्थव्यवस्था दूसरे तरह से समझते हैं. नकद अर्थव्यवस्था में दो किस्म की नकदी होती है. एक एकाउंटेड या घोषित और दूसरी अनअकाउंटेड. नियमों के तहत दो ही खाते अधिकृत है. नकदी केवल तभी कानूनी बन सकती है जब या तो टैक्स खाते में उसका लेखा-जोखा हो या बैंक खाते में. जो भी नकदी इन दोनों खातों से बाहर है उसे अनअकाउंटेडड कहेंगे.
6. काले धन की अर्थव्यवस्था के आकार के बारे में चाहे जो अनुमान हों, लेकिन जहां तक नकद अर्थव्यवस्था की बात है, इसे भारतीय रिजर्व बैंक हरेक तिमाही में अच्छी तरह से मापता और दर्ज करता है. चूंकि आरबीआई छापे गए हरेक करेंसी नोट का रिकॉर्ड रखता है, इसलिए मनी इन सर्कुलेशन का आंकड़ा, नकद अर्थव्यवस्था की गणना है.
फायदों का हिसाब
लगभग दस-ग्यारह दिन के दर्द के बाद देश यह जानने को बेचैन है कि इस कुर्बानी के फायदे आखिर क्या होने वाले हैं. नकद अर्थव्यवस्था के कुछ आंकड़ों से फेंट कर संभावित फायदों का अंदाज लगाया जा सकता है.
रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक मार्च 2016 तक भारत में 500 और 1000 के नोटों में करीब 14,180 अरब रुपये की नकदी प्रचलन में थी. इसमें से 30 फीसदी यानी 4,254 अरब रुपये की नकदी ाबैंकों और दूसरी सरकारी एजेंसियों के पास थी, जबकि 70 फीसदी यानी 9,926 अरब रुपये आम जनता (मनी विद पब्लिक) के पास थे.
यह लेख लिखे जाने तक करीब 11.50लाख करोड़ रुपये बैंकों के पास जमा हो चुके थे. पूरे अभियान की सफलता इस बाद पर निर्भर है कि बड़े नोट बंद होने के बाद कितनी नकदी अदला-बदली के लिए वापस आएगी और कितनी नकदी व्यवस्था से गायब हो सकती है?
1978 में इसी तरह के फैसले के बाद 75 फीसदी रकम व्यवस्था में वापस आ गई थी, जबकि बाकी 25 फीसदी नकदी सिस्टम से बाहर हो गई थी. हमारे पास नकदी में काले और सफेद का कोई ठोस आंकड़ा नहीं है, फिर भी तमाम आकलनों के मुताबिक 2,500 अरब से 3000 अरब रुपये की रकम शायद नोट बदली के लिए बैंकों तक नहीं आएगी अर्थात् यह धन बैंकिंग सिस्टम से बाहर हो जाएगा. यह रकम जीडीपी के 2.4 से 3 फीसदी के बीच कहीं हो सकती है.
इधर जब हम इन आंकड़ों पर सिर खपा रहे थे, तभी रिजर्व बैंक ने सरकार को बताया है कि अगर सरकारी छापेखाने तय वक्त से ज्यादा काम करेंगे, तब भी गैरकानूनी करार दिये गये 22 अरब नोटों को एक साल का वक्त लगेगा. ऐसे में सरकार को मजबूर होकर करेंसी नोटों के आयात का रास्ता अपनाना पड़ सकता है और पुराने नोटों को बदलने की मियाद को 50 दिनों से आगे बढ़ाना पड़ सकता है. इसलिए तीन-चार माह बाद ही हमें यह पता चलेगा कि आखिर मनी इन सर्कुलेशन का कितना हिस्सा बैंकों के पास आया और कितना खत्म हो गया है.
तो भी हम मानकर चल सकते हैं कि:
1. लोगों के पास जो कुल 9.9 लाख करोड़ रुपये की रकम है, उसमें 7 से 8 लाख करोड़ बैंकों के पास नकदी बदलने के लिए वापस आएंगे.
2. चूंकि करेंसी इन सर्कुलेशन आरबीआई की देनदारी है, इसलिए जितना धन वापस नहीं लौटेगा, वह रिजर्व बैंक की आय होगी.
3. आरबीआई यह रकम सरकार को निवेश के लिए या लाभांश के तौर पर बांट सकता है या फिर स्वाहा हो चुकी रकम को बेकार मानकर नोटों की आपूर्ति में कमी कर सकता है, जैसा कि 1978 में किया गया था.
आइए अब नुकसानों की गिनती करें
नोट बंद होने से बाजार में मांग और खपत पूरी तरह खत्म हो चुकी है. व्यापार सुन्न पड़ा है और तरलता संकट की वजह से वित्तीय बाजार गिरे हैं और रुपया टूट गया है. बैंकों के सामने रकम के लिए ज्यादा लंबी कतारों ने सरकार को धन निकालने और अदला-बदली के नियमों में ढील देने के लिए मजबूर किया है.
खपत/मांग
1. सरकार के आंकड़ों के मुताबिक भारत में उपभोग खर्च प्रति माह 2,97,455 रुपए है. इस खर्च में खाना, किराना, ईंधन, बुनियादी सेवाएं, उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स के सामान वगैरह सभी कुछ शामिल हैं. नोट बंद होने के बाद पूरी खरीदारी जरूरी चीजों तक सीमित है.
2. ध्यान रखें कि भारत में उपभोग खर्च जीडीपी का औसतन 60 फीसदी और है. चूंकि हिंदुस्तान की 11.8 फीसदी अर्थव्यवस्था नकदी के भरोसे चलती है, इसलिए नकदी पर आधारित खपत खत्म हो चुकी है. बाजार छह महीने लंबी मंदी और जीडीपी में 0.5 फीसदी तक गिरावट का अंदाज लगा रहे हैं.
कॉरपोरेट
1. उपभोक्ता उत्पादों की कंपनियां अगले तीन से छह महीनों के दौरान बिक्री में जबरदस्त गिरावट से कांप रही हैं. उपभोक्ता खपत के सामान बनाने वाली 10 शीर्ष कंपनियां नोटबंदी के बाद से शेयर बाजार में 1.5 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का बाजार मूल्य गंवा चुकी हैं.
2. मांग लौटने तक नए निवेशों और मार्केटिंग के खर्चों की उम्मीद बेमानी है.
बैंकिंग व्यवस्था
1. नया जमा बैंकों के लिए हरगिज खुशखबरी नहीं है. आखिरी गिनती तक बैंकों ने रिवर्स रेपो विंडो के जरिए आरबीआई में 6 लाख करोड़ रुपये जमा कराये हैं. जिस पर आरबीआइ को उन पर भारी ब्याज चुकाना पड़ेगा: तकरीबन 6.2 फीसदी सालाना की दर से.
2. बैंकों ने जमा पर ब्याज दरों में कटौती करना पहले ही शुरू कर दिया है और वे चाहेंगे इस जमा रकमों को जल्दी ही निकाल लिया जाए, क्योंकि कर्ज बांटने का धंधा मंद चल रहा है.
3. बैंकों के कर्ज रिकवरी में सुस्ती आने की संभावना है. ग्रामीण और खुदरा कारोबार में गिरावट के कारण कुछ समय के लिए बैंकों के एनपीए बढ़ सकते हैं. बैंकों को अगले कुछ महीनों के लिए खुदरा/ग्रामीण कर्जों की अपनी अंडरराइटिंग प्रक्रियाओं पर नए सिरे से नजर डालनी होगी और नए कर्ज रोकने होंगे.
4. जब तक यह नकदी संकट खत्म नहीं होता, बैंकों को कर्ज बांटने, वसूली और अन्य कामकाज स्थगित रखने पड़ेंगे.
सरकार को भी होगा नुकसान
1. स्वाहा हो चुके काले धन की शक्ल में कितना धन सरकार को मिलेगा यह अभी पता नहीं, लेकिन सरकार को नई मुद्रा की छपाई की लागत के लिए 11,000 करोड़ रुपये की चपत सहनी होगी.
2. राज्य सरकारें जमीन की रजिस्ट्रियों और वैट के संग्रह में कमी आने की वजह से कर संग्रह में गिरावट के लिए कमर कस रही हैं. उत्पादन और बिक्री में ठहराव की वजह से केंद्र को सेवा कर और उत्पाद शुल्क से हाथ धोना पड़ सकता है.
राजनेता हमेशा चौंकाना चाहते हैं लेकिन अर्थव्यवस्था का तकाजा है स्थिरता, ताकि लंबे समय के लिए निवेश किया जा सके. सरकार के फैसलों का सियासी फायदा-नुकसान तो चुनावी आंकड़ों से ही पता चलता है. अलबत्ता आर्थिक आंकड़े रोज आते हैं और फैसलों पर फैसला सुनाते हैं. फिलहाल तो नकदी की कमी ने भारत को दुनिया की सबसे तेजी से सुस्त पड़ती अर्थव्यवस्था में बदल दिया है, हालांकि आखिरी फैसला अभी आना बाकी है

Thursday, December 1, 2016

तृतीय विश्व युद्ध की खनक साफ दिख रही है ??


तृतीय विश्व युद्ध की खनक साफ दिख रही है ??
 ***********************************************
सीरिया 21वीं शताब्दी का सबसे बड़ा गृह युद्ध झेल रहा है। पहले ऑस्ट्रिया के हाई-वे पर एक रेफ्रीजरेटर की लॉरी में सत्तर से अधिक लोगों की लाश मिलने से हड़कंप मचा। इसके बाद टर्की के समुद्र किनारे तीन वर्षीय सीरियाई बच्चे की औंधे मुंह पड़ी लाश ने दुनिया को द्रवित कर दिया है। गृह युद्ध से जान बचाकर भाग रहे सीरियाई नागरिकों की कहानी बताने के लिए ये दो घटनाएं काफी नहीं हैं। सीरिया के मौजूदा संकट की कहानी 15 मार्च, 2011 से शुरू हुई है, जब वहां के सीमांत शहर दार में बशर-अल-असद शासन के खिलाफ पहला प्रदर्शन हुआ। करीब चार दशक से शासन कर रहे बशर-अल-असद परिवार के खिलाफ दार में प्रदर्शन क्यों शुरू हुआ, इसकी पृष्ठभूमि 2006 का अकाल है। यह अगले पांच वर्षों तक जारी रहा। तब कुल उपजाऊ भूमि का 85 प्रतिशत भाग सूखे का शिकार हो गया था। खाद्य सामग्री का भंडार समाप्त हो गया था, और लोग गांवों से शहरों की तरफ पलायन करने लगे थे। स्थिति यह थी कि जिनकी गांव में अच्छी खासी जमींदारी थी, उन किसानों को भी अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए शहरों में सफाई कर्मचारी के तौर पर काम करना पड़ा। वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि सीरिया का यह सूखा मानव जनित मौसम परिवर्तन का नतीजा है।बड़े पैमाने पर विस्थापित हुए एवं नरक की जिंदगी जीने को मजबूर सीरियाई किसानों में रोष व्याप्त था। बशर-अल-असद ने इन किसानों को राहत पहुंचाने के लिए भेदभावपूर्ण काम किया। सरकारी कुएं शियाओं को आवंटित किए गए। इससे किसानों के किशोर बच्चों के मन में विद्रोह की चिंगारी भड़कने लगी। दार शहर के कुछ किशोरों ने रात को शहर की दीवारों पर राष्ट्रपति के खिलाफ नारे लिखे, जिसके परिणामस्वरूप अगले दिन ही स्थानीय पुलिस ने 15 किशोरों को गिरफ्तार कर लिया। पुलिस किसी भी देश की हो, उसका चरित्र एक सा होता है। जब पुलिस ने किशोरों पर अमानवीय अत्याचार किए, तो स्थानीय जागरूक नागरिकों ने 15 मार्च, 2011 को दार शहर में पहला प्रदर्शन किया। छह वर्ष के सूखे ने सीरियाई नागरिकों की सहनशक्ति समाप्त कर दी थी। लिहाजा यह प्रदर्शन पूरे देश में फैल गया। और जब प्रदर्शनकारियों पर फायरिंग हुई, तो विद्रोह शुरू हो गया।
 संयुक्त राष्ट्रसंघ का कहना है कि इराक़ और सीरिया में जारी अशांति इन देशों में युवा पीढ़ी की समाप्ति का कारण बन सकती है।यूनीसेफ़ के प्रभारी ने कहा है कि इराक़ और सीरिया में जिस प्रकार से हिंसक कार्यवाहियों का क्रम जारी है उसको देखते हुए एसा लगता है कि यह क्रम यदि इसी प्रकार से बढ़ता रहा तो इन देशों में युवा पीढ़ी समाप्त हो जाएगी।
 एंथनी लीक ने कहा कि इराक़ और सीरिया की वर्तमान स्थिति के कारण मध्यपूर्व में लगभग एक करोड़ चालीस लाख बच्चे, नाना प्रकार के संकटों में घिरे हुए हैं। उन्होंने कहा कि केवल सीरिया में ही लगभग साठ लाख बच्चे निराशा और हताशा में जीवन व्यतीत कर रहे हैं जिनपर युद्ध ने बहुत गहरे प्रभाव छोड़े हैं।
 राष्ट्रसंघ के अनुसार सीरिया में जारी युद्ध के कारण पिछले पांच वर्षों के दौरान दो लाख से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। इस देश में पिछले ही साल कम से कम 75 हज़ार लोग मारे गए।
 और रोज़ ही मारे जा रहे हैं । सीरिया में आतंकवादियों की विध्वंसक कार्यवाहियों के कारण 38 लाख लोग भागकर सीरिया के बाहर चले गए जबकि 70 लाख से अधिक लोग सीरिया के भीतर ही अन्य क्षेत्रों में पलायन करने पर विवश हुए हैं। उल्लेखनीय है कि अभी हाल ही में घोषणा की गई है कि सीरिया को गृहयुद्ध से कम से कम 22 अरब डालर की क्षति हुई है ।
 लोग पूछते है की शिया-सुन्नी क्या है...???
अरे मेरे भाइयो अगर मैं हज़ारो किताबो के तारीखी पन्ने को पढ़ने के बाद एक लाइन मे उत्तर दू तो वो ये होगा-------
''इस्लाम के विरुद्ध किये गये विश्वासघात का नाम ही "शियत"
और शियत के द्वारा किये गये विश्वासघात को सहने और उसे डिफेंड करने का नाम "सुन्नियत" है ॥ यह पूरे लेख का महफ़ूम है । अब इसके ऐतिहासिक पृश्टिभूमि पर नज़र गाड़ते हैं जो इस संकट को समझने मे मदद करेगा ......... ॥ सीरिया (अरबी Sūrriya or Sūrya) आधिकारिक रूप से सीरियाई अरब गणराज्य , दक्षिण-पश्चिम एशिया का एक राष्ट्र है। इसके पश्चिम में लेबनॉन तथा भूमध्यसागर, दक्षिण-पश्चिम में इसरायल, दक्षिण में ज़ॉर्डन, पूरब में इराक़ तथा उत्तर में तुर्की है। इसराइल तथा इराक़ के बीच स्थित होने के कारण यह मध्य-पूर्व का एक महत्वपूर्ण देश है। इसकी राजधानी दमिश्क है जो उमय्यद ख़िलाफ़त तथा मामलुक साम्राज्य की राजधानी रह चुका है।अप्रैल 1946 में फ्रांस से स्वाधीनता मिलने के बाद यहाँ के शासन में बाथ पार्टी का प्रभुत्व रहा है।
 प्राचीन काल में यवन इस क्षेत्र को सीरीयोइ कहते थे। इस पद का प्रयोग प्रायः सभी तरह के असीरियाई लोगों के लिए होता था। विद्वानों का कहना है कि ग्रीक लोगों द्वारा प्रयुक्त शब्द असीरिया ही सीरिया के नाम का जनक है। असीरिया शब्द खुद अक्कदी भाषा के अस्सुर से आया है।सीरिया शब्द का मतलब बदलता रहा है। पुराने जमाने में सीरिया का अर्थ होता था। भूमध्यसागर के पूरब में मिस्र तथा अरब के उत्तर तथा सिलीसिया के दक्षिण का क्षेत्र जिसका विस्तार मेसोपोटामिया तक और जिसे पहले असीरिया भी कहते थे। रोमन साम्राज्य के समय इस सीरियाई क्षेत्रों को कई विभागों में बाँट डाला गया था। जुडया (जिसको सन् 135 में फ़लीस्तीन नाम दिया गया - आज उस फलीस्तीन के अंतर्गत आज का इसरायल, फिलीस्तीन तथा ज़ॉर्डन आते हैं) सबसे दक्षिण पश्चिम में था, फ़ोनेशिया लेबनॉन में, कोएले-सीरिया तथा मेसोपोटामिया इसके खंडों के नाम थे।
 इस्लाम में सीरिया का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। उम्मयद खिलाफ़त (650-735) के समय दमिश्क इस्लाम की राजधानी था और मुसलमान दमिश्क की तरफ़ नमाज अदा करते थे। सन् 1260 तक यह अब्बासियों के अधीन रहा जिसकी राजधानी बग़दाद थी। मंगोलों के आक्रमण की वजह से 1258 में बग़दाद का पतन हो गया। मंगोलों की सेना की कमान कितबुगा के हाथों सौप दी गई थी जिसको मिस्र के मामलुकों ने आगे बढ़ने से रोक दिया। मंगोलों ने 1281 में मामलुकों पर दुबारा भारी आक्रमण किया पर वे हार गए। ये मंगोल पहले बौद्ध थे ।
 सन् 1400, तैमूर लंग, अथवा तमेरलेन ने सीरिया पर आक्रमण किया और अलेप्पो तथा दमिश्क में भारी तबाही मचाई। भित्तिकारों को छोड़ कर सभी को मार डाला गया और भित्तिकारों को समरकन्द ले जाया गया। तैमूर लंग के समय से सीरिया के स्थानीय इसाईयों को प्रताड़ना दी जाने लगी क्यों की ये इस्लाम के पक्के विरोधी थे और जनसंहार करना कुटिल चालें चलना इनके राग राग मे था । सोलहवीं सदी से लेकर बीसवीं सदी के आरंभ तक यह उस्मानी साम्राज्य (ऑटोमन तुर्क) का अंग बना रहा।
 इसके बाद यहाँ फ्रांस का शासन आया जो 1946 तक चला। इसके बाद से यहाँ राजनैतिक अस्थिरता रही है। बाथ पार्टी ने शासन पर अपना सिक्का जमाया ।
 सीरिया के लोग, चाहे वो मुस्लिम हों या इसाई, पूरे अरबी लोग हैं - संस्कृति, भाषा और तहज़ीब के हिसाब से। सीरीयाई अरबों की आबादी सीरिया की कुल आबादी का 90 प्रतिशत है। ग़ैर अरब अल्पसंख्यकों में से प्रमुख हैं: । कुर्द - 9%). कुर्द मुख्यतः उत्तर पूर्वी क्षेत्र में रहते हैं जो तुर्की तथा इराक के सटे क्षेत्र हैं।
 सीरिया की 90 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है और 10 प्रतिशत ईसाई। सुन्नी मुस्लिम कुल जनसंख्या के 74 प्रतिशत हैं जबकि शिया क़रीब 13 प्रतिशत ।दमिश्क में कुछ यहूदी भी रहते हैं।यहीं पर शुरू होता है कुर्द , शिया ,और यहूदी के साथ साथ इसाइयों का गठजोड़ ........ ॥
वर्तमान मे सीरियाई गृह्युध्ह जो कि सीरियाई विद्रोह या सीरियाई संकट के नाम से भी जाना जाता है, सीरिया में सत्तारूढ़ 'बाथ सरकार' के समर्थकों एवं विपक्षियो के बीच चल रहा सशस्त्र संघर्ष है। यह संघर्ष १५ मार्च,२०११ को लोक-सम्मत प्रदर्शनों के साथ शुरू हुआ एवं अप्रैल, २०११ तक पूरे देश में फैल गया। यह प्रदर्शन समस्त उत्तर-पूर्व में चल रही 'अरब क्रांति' का हिस्सा थे। विरोधकर्ताओं की मांगें थी की राष्ट्रपति बशर-अल-अस्सद, जो कि १९७१ से सीरिया में सत्तारूढ़ थे, पदत्याग करें एवं 'बाथ पार्टी' का शासन, जो कि १९६३ से आ रहा है, का अंत हो। आवाम सुन्नी और हुकूमत का ताज शिया के सर पर । एक अहम बात अब आगे का दृश्य देखिये ।
 अप्रैल, २०११ में सीरियाई सेना को क्रांति के निर्देष मिले, तथा सैनिकों ने पूरे देश में प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाईं। महीनों की सैन्य घेराबंदी के बाद यह विरोध सशस्त्र विद्रोह में बदल गया। आज विपक्षी ताकतें, जो कि मुख्यतः विरोधी सैनिकों एवं नागरिकों से बनीं हैं एक केन्द्रीय नेतृत्व के बिना हैं। पूरे देश के कई छोटे-बड़े नगरों में चल रहा यह विद्रोह असममात्रिक है। २०११ के अन्त में विपक्षी ताकतों में इस्लामी संगठन 'जबात-उल-नसरा' का बढ़ता प्रभाव देखा गया। सन २०१३ में हिजबुल्ला ने सीरियाई सेना की ओर से जंग में प्रवेश किया। सीरियाई सरकार को रूस एवं ईरान से सैनिक सहायता प्राप्त है। समझ सकते हैं ईरान और रूस को । जबकि विद्रोहियों को क़तर एवं सउदी अरब से हथियारों की पूर्ती हो रही है। जुलाई २०१३ तक सीरियाई सरकार देश की ३०-४० प्रतिशत भूमि व ६० प्रतिशत जनता पर शासन कर रही है, जबकि विप्लवियों के नियंत्रण में देश के उत्तर एवं पूर्व में भूमि है।
 अरब संघ, संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोपीय संघ, एवं अन्य देशों ने प्रदर्शनकारियों पर हिंसा के प्रयोग कि निंदा की। अरब संघ ने इस संकट पर राज्य की प्रतिक्रिया के कारण सीरिया को संघ से निकाल दिया, एवं उसकी जगह सीरियाई राष्ट्रीय गठबंधन, सीरिया के राजनीतिक विपक्षी समूहों के एक गठबंधन, को ६ मार्च २०१३ को संघ में जगह दी

अब इसके जलने और बर्बाद होने की पृष्टीभूमि पर एक दूरअंदेशी के साथ नज़र दौड़ाते हैं ।गोलान दक्षिण पश्चिम का एक क्षेत्र है जो 1850 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र है। इस पहाड़ी क्षेत्र की उँचाई 2500 मीटर से अधिक है और इससे मैदानी क्षेत्रों पर नियंत्रण रखने में आसानी होती है। 1949 में इसरायल के साथ हुई एक संधि के मुताबिक इसके पास दोनों देशों की सीमा तय हुई थी और इस पहाड़ी क्षेत्र को असैनिक क्षेत्र बनाने का फ़ैसला किया गया था। पर सीरिया ने इस क्षेत्र का इस्तेमाल इसराइली किसानों पर निगरानी करने के लिए किया जिसके फलस्वरूप इसरायल ने सन् 1967 में 6 दिनी लड़ाई में छीन लिया। इसका जवाब सीरिया ने यहूदी (इसरायल के लोगों का धर्म) लोगों के पवित्रतम दिन योम किप्पुर के दिन सन् 1973 में इसरायल पर आक्रमण करके देने की कोशिश की। इसके बाद 1974 में संयुक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप के बाद इसरायल ने गोलान के सीरियाइयों को सीरिया में व्यापार करने की इजाजत दे दी । गोलान के सीरियाई छात्रों को सीचियाई विश्वविद्यालय में पढ़ने की भी अनुमति मिल गई ।है न एक खूबसूरत चाल ? और इन सबके पीछे वही पुरानी कहानी है जो यहूदियों का ज़बरदस्त हाथ रहा । इसको समझने के लिए एक और विश्लेषण ।
 अमेरिका मे 71% ईसाई, 1.9% यहूदी व 0.9% मुसलमान तो साथ मे 22.8% नास्तिक है। अमेरिका मे ईसाई बहुसंख्यक है जिनमे से प्रोटेस्टैंट ईसाइयो की तादाद 46.5% है तो वही कैथोलिक ईसाइयो की तादाद 25.4% है लेकिन हैरानी की बात है की अमेरिका मे कैथोलिक ईसाइयो की इतनी बड़ी तादाद होने के बावजूद अब तक सिर्फ़ एक ही राष्ट्रपति इस फिरके से चुना गया जिसको राष्ट्रपति रहते हुये ही गोली मार कर हत्या कर दी गयी थी और उस हत्या का आरोप अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी CIA पे लगता रहा है उस शख्स को दुनिया जान एफ0 कैनेडी के नाम से जानती है । वरना जितने भी अमेरिकन राष्ट्रपति हुये है उनका ताल्लुक प्रोटेस्टैंट फिरके से रहा है और ये फिरका यहूदियो से बेहद करीब रहा है। यह बात संगयान रहे की ईसाइयत के दो बड़े फिर्को यानी की कैथोलिक और प्रोटेस्टैंट एक दूसरे को काफ़िर कहते है व एक दूसरे को ईसाई नही मानते और इनके बीच 1618 से लेकर 1648 तक भीषण युद्ध हुआ जिनमे लाखो लोग मारे गये थे । प्रॉटेस्टेंट फिरके की बुन्याद मार्टिन किंग लूथर ने रखी थी जिसका उदय 16वीं शताब्दी के प्रारंभ में हुआ था । जो सलेबी जंग {क्रूसेड वार} 1095 से लेकर 1291 तक ईसाइयो व मुसलमानो के मध्य लड़ी गयी थी जबकी यह जंग मुसलमानो व यहूदियो के बीच थी जिसमे यहूदियो ने ईसाइयो का खूबसूरती के साथ मुसलमानो के खिलाफ इस्तेमाल किया था । जिसमे ईसाइयो को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा था और यहाँ से उनके पतन का दौर शुरू हुआ । जिसके फलस्वरूप पीटर वाल्डो, जान टोलर व जान क्लिफ ने जन्म लिया और इस धर्म को टुकड़े टुकड़े करने मे अहम योगदान दिया । एक अलग कहानी है मगर सीरिया से अलग नहीं है । कहने का अभिपर्याय सिर्फ़ इतना है की जब यहूदियो ने इसाइयों को जो की कैथोलिक ही थे, का सहयोग के नाम पे इस्तेमाल किया जिसके नतीजे मे आज कैथोलिक फिरका पतन की ओर तेज़ी से अग्रसर है आज ठीक उसी तरह यहूदी ईसाइयो के प्रोटेस्टैंट फिरके का अपने जातीय मकसद के लिये सहयोग के नाम पे इस्तेमाल कर रहे है । जिनका आज अमेरिका के अंदर का उथल पुथल है तो क्या अमेरिका का वही अंजाम होगा जो उस समय क्रूसेड वार के बाद कैथोलिक ईसाइयो की तर्जुमानि करते यूरोपियन देशो का हुआ था...???और यही यहूदी अब शियाओं , कुर्दों और इसाइयों का इस्तेमाल सीरिया मे कर रहे हैं ।
 एक सोचने और मंथन करने का प्रश्न है और इसके बिना सीरिया को समझना और आतंकवाद को समझना मुश्किल होगा ।एक पैनी इशारा यूएनओ मे सीरिया के राजदूत ने किया है । आँखें खुल जाएंगी

संयुक्त राष्ट्र संघ में सीरिया के स्थाई राजदूत ने कुछ पश्चिमी और क्षेत्रीय देशों के हस्तक्षेप को सीरिया संकट को उभारने और इसे जारी रहने का अस्ली कारण बताया है।
 बश्शार जाफरी ने बुधवार को संयुक्त राष्ट्रसंघ में एक प्रेस कांफ्रेन्स में सीरिया की स्थिति के संबंध में कहा कि कुछ देश जिनका सुरक्षा परिषद में प्रभाव है, अपने क्षेत्रीय घटकों के साथ मिलकर सीरिया में राजनीतिक शून्यता उत्पन्न करने की चेष्टा में हैं ताकि वे सीरिया के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कर सकें। बश्शार जाफ़री ने कहा कि इन देशों को यह पता नहीं है कि सीरिया के लोग भविष्य का फ़ैसला ख़ुद करने का संकल्प रखते हैं।''
बश्शार जाफ़री ने सीरिया के संबंध में ''अमेरिका, कतर, सऊदी अरब और तुर्की की गलतियों की ओर संकेत किया और कहा कि बहुत से युरोपीय देशों के आतंकवादी, तुर्की की सीमा से सीरिया में प्रवेश करते हैं। उन्होंने आतंकवादियों के प्रति अमेरिका के वित्तीय एवं सैनिक समर्थन की ओर संकेत करते हुए कहा कि जायोनी शासन भी इन गुटों का समर्थन करता है और घायल आतंकवादियों का उपचार भी इस्राईल में होता है । यहां तक कि उनमें से कुछ का प्रशिक्षण अवैध अधिकृत फ़िलिस्तीन में होता है। बश्शार जाफ़री ने सीरिया के मामलों में संयुक्त राष्ट्र संघ और अरब संघ के संयुक्त दूत अख़ज़र इब्राहीमी के त्यागपत्र की ओर संकेत करते हुए कहा कि इब्राहीमी ने अपने प्रतिनिधित्व काल में बहुत गलतियां की हैं उनमें से एक ग़लती सीरिया के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप है।
.जो लोग इस्लाम जैसे मज़हब जिसका एक अर्थ बुद्धिजीवी वर्ग ये भी निकालता है की "शांति" उसके साथ ऐसा घिनौना शब्द जोड़ना ''मुस्लिम आतंकवाद '' क्या उचित है....???....आपको जान कर हैरानी होगी की इस दुनिया मे सबसे पहले इस्लामिक आतंकवाद नाम के शब्द का प्रयोग हार्वर्ड यूनिवर्सिटी का प्रोफ़ेसर व अमेरिकन एडवाइज़र व फारेन पॉलिसी मैगज़ीन का संस्थापक "सैमुअल फिलिप्स हनटिंगटन" ने किया था ये वही सैमुअल फ़िलिप्स है जो अफ़ग़ानिस्तान व इराक़ पे दुनिया के सबसे बड़े व संगठित आतंकवाद यानी की अमेरिका की इस आतंकवादी जोनूनीयत को न सिर्फ़ जायज़ ठहराता है बल्कि उसका दिफ़ा भी करता है यानी की इसका वही हाल है की "एक चोर चोरी करे फिर भागते हुये किसी यात्री को चोर चोर पुकारे और पब्लिक उसे छोड़ उस बेकोसूर यात्री के पीछे पड़ जाय और चोर चोरी कर जाय"।
यही नहीं आपको ये जान कर भी हैरानी होगी की तुर्की मे कुर्दिस्तान वर्कर्स' पार्टी नाम का एक आतंकवादी संगठन है जिसने 1984 से लेकर अब तक 45 हज़ार से अधिक लोगो का कत्ल-ए-आम किया है लेकिन हैरानी की बात है की इतने लोगो के खून से सने संगठन को न सिर्फ़ फ्रांस,ब्रिटेन व जर्मनी सपोर्ट करते है बल्कि इस संगठन की सहायता भी करते है और साथ मे इस संगठन के वो आतंकवादी जिनके हाथ सैकड़ो लोगो के खून से रंगे हैं उन्हे न सिर्फ़ पनाह दी बल्कि बहुत से आतंकियो को ट्रेनिंग भी दी जिन्होने बाद मे तुर्की मे वो हर काम किया जिससे इंसानियत शर्मशार हो और ये सब सहायता सिर्फ़ इसलिए दी जाती है क्यूंकी इस संगठन की विचारधारा लिब्रलिस्म व कम्युनीज़्म है और हैरानी की बात है की इस आतंकवादी संगठन को सहायता प्रदान करने के वजह वो इसे सांस्कृतिक संगठन बताते है अब मुझे समझ मे नही आता की लोगो का कत्ल करना कौनसी संस्कृति है....???....साथ मे एक बात पे आपका ध्यान केंद्रित कराना चाहूँगा की क्या आपने कभी इस संगठन का नाम मीडिया मे सुना है...???...और अगर नही तो उसका कारण क्या ये नही की सिर्फ़ इसलिये की इस संगठन की विचारधारा कम्युनीज़्म है....वैसे साथ मे एक बात और फर्मा दू की इस संगठन की मदद करने वालो मे से सिरिया भी था क्यूंकी सिरिया के राष्ट्रपति हाफ़िज़-अल-असद जो की मौजूदा राष्ट्रपति बिशार-अल-असद है उसका बाप ने ,न सिर्फ़ उस संगठन को मदद की बल्कि उसके सरगना अब्दुल्ला ओजालान को पनाह भी दी सिर्फ़ इसलिये क्यूंकी उसकी भी विचारधारा कम्युनीज़्म थी ध्यान रहे ये वही हाफ़िज़-अल असद है जिसने 1982 मे शहर हमात मे एक रात मे 83 हज़ार सुन्नियो का कत्ल कराया जो की मुस्लिम ब्रदरहुड से ताल्लुक रखते थे ॥
   सभी के हाथ सीरिया के लोगो के खून से सने है वो चाहे बिशार-अल-असद,हिज़्बुल्ला,मेहदी फोर्स,ईरान,व इराक़ी आतंकवादी शिया संगठन,रूस व चीन हो या सऊदी अरब,लेबनान,जार्डन,UAE या फिर जर्मनी,ब्रिटेन,फ्रांस अमेरिका व इसराइल हो.......।
जब बिशार-अल-असद ने सिरिया की अवाम पे जो उसके ज़ुल्म के खिलाफ सड़को पे उतर आई थी को पूरा पूरा मौका फराहम किया इन अरब और यूरोपीयन देशो ने ताकि इनके अपने मफाद पूरे हो सके और उसपे कोई आँच न आ सके तो वही रूस और चीन ने सिर्फ़ बिशार-अल-असद की इसलिये मदद की क्यूंकी उसकी भी विचारधारा कम्युनिस्ट है तो ईरान व हिज़्बूशैतान ने सिर्फ़ इसलिये सिरिया के लोगो का कत्ल-ए-आम करने मे बिशार-अल-असद की मदद की क्यूंकी वो उनके मसलक यानी की शिया है ।
.सब नंगे है इस खून के हम्माम मे............. ॥ ॥जारी है

Saturday, October 30, 2010

Kiss

*Kiss*.......*Kiss*
*Kiss*.....*Kiss*
*Kiss*...*Kiss*
*Kiss**Kiss*
*Kiss*...*Kiss*
*Kiss*.....*Kiss*
*Kiss*.......*Kiss*
*Kiss*.........*Kiss*
........*Kiss*
........*Kiss*
........*Kiss*
........*Kiss*
........*Kiss*
........*Kiss*
........*Kiss*
........*Kiss*
........*Kiss*
.........*Kiss*
...*Kiss*...*Kiss*
.*Kiss*.......*Kiss*
...*Kiss*......*Kiss*
......*Kiss*
...........*Kiss*
*Kiss*......*Kiss*
.*Kiss*.......*Kiss*
...*Kiss*...*Kiss*
.........*Kiss*
.........*Kiss*
...*Kiss*...*Kiss*
.*Kiss*.......*Kiss*
...*Kiss*......*Kiss*
......*Kiss*
...........*Kiss*
*Kiss*......*Kiss*
.*Kiss*.......*Kiss*
...*Kiss*...*Kiss*
.........*Kiss

Wednesday, October 20, 2010

A true conspiracy

Australian Prime Minister
Julia Gillard on Wednesday
dismissed as "stupid and
wrong" a trade union
leader's remarks that the
September 11, 2001 terror
attacks in the US were a
conspiracy.
Kevin Bracken, the secretary
of the Maritime Union of
Australia and Victorian
Trades Hall Council (VTHC)
president, on Wednesday
asked for a fresh inquiry into
the 9/11 attacks, claiming
the "official story doesn't
stand up to scientific
scrutiny".
Bracken, who has earlier
faced criticism for comparing
US anti-terrorism law with
"civic controls" imposed by
German Nazi dictator Adolf
Hitler, claimed that elements
of the then US government
led by President George W.
Bush, military personnel and
security services were
involved in the attacks.
However, VTHC secretary
Brian Boyd distanced unions
from Bracken's views, the
Australian reported.
The Opposition opened
parliamentary question time
on the matter on
Wednesday, with Victorian
MP Josh Frydenberg asking
the Prime Minister what
action she would take
against Bracken "to send a
message that such remarks
are unacceptable".
"Obviously I don't agree with
the remarks, obviously they
are stupid and wrong,"
Gillard said.
"The Labor Party is a large
organisation, people join it
as individuals — we don't
dictate what people think."
After being accused by
Liberal frontbencher
Christopher Pyne of not
answering the question on
discipline, Gillard said: "If it is
the intention of the leader of
Opposition to expel every
member who says something
stupid, I'll start sending him a
weekly list."
Bracken told the Australian
Online on Wednesday that
aviation fuel from the
hijacked planes that crashed
into the Twin Towers in New
York would not have been
hot enough to melt steel,
and no high-rise steel-
framed building before or
after September 11, 2001,
had collapsed due to fire.
VTHC secretary Boyd said
Bracken, who aired his views
to ABC radio's Jon Faine,
should not have identified
himself as Trades Hall
president when speaking
about the 9/11 attacks. The
vast majority of unions
condemned the events of
9/11 as terrorist attacks, and
resolutions cited by Bracken
did not endorse his views,
Boyd said.
Bracken faced flak for his
views in 2006 when he
claimed the anti-terror laws
introduced by the US and its
allies, including Australia,
were similar to the "civic
controls" imposed by Hitler
in 1933.

A true conspiracy

Australian Prime Minister
Julia Gillard on Wednesday
dismissed as "stupid and
wrong" a trade union
leader's remarks that the
September 11, 2001 terror
attacks in the US were a
conspiracy.
Kevin Bracken, the secretary
of the Maritime Union of
Australia and Victorian
Trades Hall Council (VTHC)
president, on Wednesday
asked for a fresh inquiry into
the 9/11 attacks, claiming
the "official story doesn't
stand up to scientific
scrutiny".
Bracken, who has earlier
faced criticism for comparing
US anti-terrorism law with
"civic controls" imposed by
German Nazi dictator Adolf
Hitler, claimed that elements
of the then US government
led by President George W.
Bush, military personnel and
security services were
involved in the attacks.
However, VTHC secretary
Brian Boyd distanced unions
from Bracken's views, the
Australian reported.
The Opposition opened
parliamentary question time
on the matter on
Wednesday, with Victorian
MP Josh Frydenberg asking
the Prime Minister what
action she would take
against Bracken "to send a
message that such remarks
are unacceptable".
"Obviously I don't agree with
the remarks, obviously they
are stupid and wrong,"
Gillard said.
"The Labor Party is a large
organisation, people join it
as individuals — we don't
dictate what people think."
After being accused by
Liberal frontbencher
Christopher Pyne of not
answering the question on
discipline, Gillard said: "If it is
the intention of the leader of
Opposition to expel every
member who says something
stupid, I'll start sending him a
weekly list."
Bracken told the Australian
Online on Wednesday that
aviation fuel from the
hijacked planes that crashed
into the Twin Towers in New
York would not have been
hot enough to melt steel,
and no high-rise steel-
framed building before or
after September 11, 2001,
had collapsed due to fire.
VTHC secretary Boyd said
Bracken, who aired his views
to ABC radio's Jon Faine,
should not have identified
himself as Trades Hall
president when speaking
about the 9/11 attacks. The
vast majority of unions
condemned the events of
9/11 as terrorist attacks, and
resolutions cited by Bracken
did not endorse his views,
Boyd said.
Bracken faced flak for his
views in 2006 when he
claimed the anti-terror laws
introduced by the US and its
allies, including Australia,
were similar to the "civic
controls" imposed by Hitler
in 1933.

Monday, October 11, 2010

The birth of myth

BIRTH OF MYTH

The certificated data of modern human established nearly 36000 years old.
We have history nearly 5000 Bc. Evidencesd in egypt. The abrahim religions have evidences of their prophets or we can say that the evidences of faith and no place for the myths. If they have myths but not religions related.
And now we come at the babri mosque and pagans'so called temple . All historical characters have evidences but so called gods of two epics ramayan and mahabharat actors .
A prominent author of hindu Tulsidas reinvented ramayan as ramcharit manas in same era of babri mosque and no reported about the finishing so called temple by babur king for the place of mosque.
The claim for the greatest democracy of USA is great because their democracy not drive by faith as our.
All we know that the head of USA mr Barak obama supported mosque on ground zero despite of anti islam protested because their country drives by law and rules but no space for the faith.
By the judgement a miracle of indian court is the certificat of birth given to non evidenced lord rama but failed for the death certificate . The world miracle cannot be seen in any country.
These judges declared just space where rama mother's delivery for the birth of lord rama or the now place where rama idol stand. They weighted faith and myth against evidences.
They rejected muslim's evidenced faith the king babur who built the mosque ,was a great religious muslim who awared about the sin of breaking worshipers places of non muslims for the mosque.
The indian students who read the story in primary classes about the babur's prayer accepted by the GOD for the exchange life of his illnessed son Humayu.babur could not mind about built a mosque over others worships places.
ASI green singled for the temple's organs on which the babri mosque stood or built by breaking temple . By these evidences the court justified the claim of rama's birth and the same ASI Rejected the claim of rama setu or bridge as man made. So we can say that when
The ASI failed to prove rama bridge on the base of evidences then why has ASI claimed the temple on the base of faith without any evidences ?

Sunday, October 3, 2010

Fact never defacts

Prof Suraj Bhan, an
eminent archaeologist said
that there is no shred of
evidence to indicate a
temple existed before Babri
Masjid. On the contrary, the
excavation indicates Muslim
inhabitation in before any
temple or anything. Historian
Irfan Habib maintained that
there’s no evidence to
indicate that there was any
temple.